नई ‌‌‌‌‌‌इबारत

सोमवार, 27 सितंबर 2010

28 सितम्बर यानि एक नए युग की शुरूआत


वैसे तो हर वर्ष 28 सितम्बर आती है और हर माह दिनांक 28 भी आती ही हैं। जैसे 24 सितम्बर निकल गई वैसे ही 28 सितम्बर भी निकल जाएगी। कुछ अहम् है इस बार की 28 सितम्बर जो भारत के इतिहास में या तो मिल का पत्थर बन सकती है या फिर एक बार फिर 24 सितम्बर की तरह बिते हुए कल की तरह गुजर जाएगी।


28 सितम्बर को वैसे तो सुप्रीम कोर्ट का एक अहम किरदार निभाया जा रहा है जो न्यायालय से हटकर होगा। अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो हुआ ही है। इस बार वह होने जा रहा है जो अब तक किसी न्यायालय ने नहीं किया। इस बार देश की बहुत बड़ी आबादी का नेतृत्व कर रहे लोगों को बीच सामंजस्य बैठाने का। क्या इसमें सुप्रीम कोर्ट सफल हो पाएगा। यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है। लेकिन जस्टिस एच।एस. कापडिय़ा की अध्यक्षता वाली बेच इस मुद्दे पर मंगलवार को सुनवाई करेगी।


मुद्दा वैसे तो बहुत ही अहम है जिससे भारत देश की अस्मिता जुड़ी है तो एक तरफ एक लुटेरे बाबर जिसने बर्बरतापूर्वक भारत देश पर राज किया है की यादें। एक तरफ मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं तो एक तरफ विदेशी अक्रांता बाबर है। भगवान राम के साथ हर भारतीय की आस्था जुड़ी है। उसे भले ही लोग धार्मिक धर्मांधता कहें या कुछ और, वह जुड़ाव तो है। क्योंकि उस स्थान का नाम अयोध्या है। वहां बहने वाली नदी का नाम सरयू है । वहां पर विभिन्न मठ, मंदिर स्थापित हैं। वह देवों की भूमि कहलाती है। उस स्थान से आज से नहीं सैकड़ों वर्षों से विवाद होता रहा है। यदि उस स्थान का हल निकल सकता है तो वह सिर्फ सामंजस्य से दूरस्थ सोच से वरना कोई हल ही नहीं है।


वर्तमान में जो दृश्य सामने आ रहा है वह परदे के पीछे की सुगबुगाहट के अलावा कुछ नहीं है। सभी दर्शकों की भांति बाहर हो हल्ला कर रहे हैं। किन्तु परंतु के सभी कयास पिटारी में बंद हो चुके हैं। होना क्या है? क्या होगा? मैं ही उलझी हुई है देश की बिरादरी। एक ओर तो आतंकवाद, दूसरी और माओवाद-नक्सलवाद की विभिषिका झेल रहा भारत एक नए माइल पर पहुंचने को आतुर है। उसमें सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद क्या स्थिति उत्पन्न होती है विचारणीय है। विचार करना भी होगा।


आजादी के बाद या यूं कहें की आजादी के पहले से ही बहुत विकराल दंश झेल चुके भारत देश को किन हालातों में दो-दो विभाजन (पाकिस्तान, बांगलादेश) के रूप में झेल चुका हैं। अब फिर से कश्मीर की स्वयत्तता की मांग पूरजोर पकड़ रही है। आजादी के 60 सालों के बाद भी स्थिति वही के वही है। आजादी के बाद यदि पाकिस्तान के बंटवारे के बाद ही समान कानून व्यवस्था को बनाए रखा होता तो आज यह स्थिति नहीं होती। सरदार वल्लभभाई पटेल की मानी होती तो यह विषम स्थिति नहीं होती। जैसा उनका कथन था गुलामी के सभी प्रतिकों को नष्ट कर दिया जाए। परन्तु गुलामी के सारे प्रतिक आज अजर अमर हो गए हैं। विभिन्न स्थानों पर स्थापित मजार आज आलीशान महल के रूप में खड़े हो चुके हैं। चर्च के साथ-साथ विद्यालय भी बन चुके हैं। वर्तमान में जो हालात हैं वह सभी उन्हीं विचारों पर आकर टिक गई है की अगर पाकिस्तान का बटवारा हुआ था या बांग्लादेश का विभाजन हो गया था फिर हिन्दुस्तान आजाद क्यों नहीं हुआ। हिन्दुस्तानियों में जो मातृभाव है वह इस भूमि पर रहने वाले अन्य लोगों में क्यों नहीं आया। कहां चुक हुई है। अगर मुसलमान को 4 पत्नियों से 16 बच्चे पैदा करने की स्वायत्तता बंद नहीं हुई तो आगे ना जाने कितने विखंडन का दंश झेलना होगा। एक समान कानूनी प्रक्रिया नहीं हूई तो और भी बड़ा दंश देश के सामने होगा। इस बार की जनसंख्या की गणना में जो विस्फोट होने वाला है उसके रिजल्ट ऐसे चौकाने वाले होंगे जिससे आगामी अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग सकता है। कई राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाएगा। कई राज्यों में तो वह तीसरे क्रम पर पहुंच जाएगा। ऐसे में अल्पसंख्यक आयोग किसके लिए काम करेगा। अल्पसंख्यक आयोग को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।


काश्मीर की वर्तमान स्थिति का आंकलन करें तो हम पाएंगे की आजादी के बाद जब श्यामाप्रसाद मुकर्जी शांति और अमन का पैगाम लेकर गए थे, उस शांति के अग्रदूत की हत्या के बाद से ही वहां की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। आज की परिस्थितियों में वहां की जनसंख्या सिर्फ तो सिर्फ मुसलमान ही बची हुई है। जो लोग बचे हुए वह न तो अपना धर्म निभा रहे हैं न ही खुलकर किसी बात का विरोध जता पा रहे हैं। वर्ष 1989-90 से कश्मीरी पंडितों को चुन-चुनकर मारा गया और उन्हें वहां से निकाला गया। वे अपने ही देश में शरणार्थियों की भांति रह रहे हैं। वर्तमान में इक्का-दुक्का कुनबे ही वहां सिर्फ और सिर्फ सेना के साए में ही अपने को जीवित रखे हैं। और वहां जनजीवन असामान्य है। वरना पड़ौसी देशों से न जाने क्या-क्या हरकते होती और आम जनता की भीड़ का सहारा लेकर न जाने क्या क्या अंजाम दिए जाते।


केन्द्र सरकार द्वारा जो सर्वलीय दल भेजकर चर्चा करवाई गई उसके नतीजे चाहें जो निकले पर यह बात तो स्पष्टत: निकल कर आ रही है कि वे जिन लोगों से मिलकर आए हैं वे सभी उमर अब्दुल्ला के शासन से उकता से गए हैं। सिर्फ पत्थरबाजी करना या शासकीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाना उनकी मंशा नहीं है। उनकी मंशा कुछ और दिखाना है। आम जनता के मन में एक-दूसरे के प्रति कुशंका का भाव पैदा करना है।


इन कुचेस्टाओं का कोई अंत होगा तो वह है विचारों से विचारों के अमल से। हमें क्या फिर से सन् 1946-47 का दंश झेलना है या फिर सन् 1951 की भांति अपना संविधान घोषित करना है। मैं यह नहीं कहता कि संविधान निर्माताओं ने कोई कमी कर दी है जिसका प्रतिफल आज 28 तारीख को देखने को मिल रहा है। मैं यह कोशिश कर रहा की जो वर्तमान स्थिति एक अहम मुद्दे को लेकर है, उसके साथ ही देश में व्याप्त कई और जटिल समस्याएं हैं जो मुंह बाएं, घर के आसपास, मुहल्ले में भी देखने को मिल जाएगी। एक समाज दो बच्चे का पालन करे वह भी अल्प व्यवस्थाओं के साथ। एक समाज चार पत्नियां रखे अल्पसंख्यक सुरक्षा के साथ। क्या इससे जो समाज बनेगा कल क्या उस समाज के अंग आप और हम रह पाएंगे।


28 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट जो सामंजस्य स्थापित करेगा उससे यदि एक अंश मात्र भी रास्ता निकलता है तो निश्चित ही भारत देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। न्याय से बड़ा है न्यायतंत्र और उससे भी बड़ा है भातृप्रेम। यदि इस समस्या को भातृप्रेम के दृश्य से देखा जाए तो निश्चित ही राष्ट्रप्रेम उमड़ेगा। राष्ट्र प्रेम उमड़ेगा तो एक राष्ट्रीय समस्या का अंत होगा। राष्ट्रीय समस्या का अंत हुआ तो राष्ट्र के सामने कोई दुश्मन तो क्या कोई तीसरा देश भी आंख उठाकर नहीं देख सकता।


रमेशचंद्र जोशी


भोपाल